|| अनुगूंग्ज ||
Friday, April 02, 2010कभी सुनी नहीं तुमने मेरी वो खामोश चित्कार,
देखा है बस हँसते हुए, अपने गम पी कर तुमको हँसाते हुए,
कभी देखा नहीं मुझे आसुओं को माला में पिरोते हुए,
सुनी है तो बस मेरी ठहाको की आवाज़,
दूर हो तुम मुझसे पर,
तुम्हारी आवाज़ अभी भी है मेरे ज़ेहन में,
खाली इस दिल में अनुगून्ग्ज से आकृति तुम्हारी बनती है,
ना सवेरा होता है यहाँ, न शाम कभी यहाँ ढलती है,
मिटटी के दिए ही तेल पी जाते है जहा,
उन घरो में शम्मा कहा जलती है ||
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देखा है बस हँसते हुए, अपने गम पी कर तुमको हँसाते हुए,
कभी देखा नहीं मुझे आसुओं को माला में पिरोते हुए,
सुनी है तो बस मेरी ठहाको की आवाज़,
दूर हो तुम मुझसे पर,
तुम्हारी आवाज़ अभी भी है मेरे ज़ेहन में,
खाली इस दिल में अनुगून्ग्ज से आकृति तुम्हारी बनती है,
ना सवेरा होता है यहाँ, न शाम कभी यहाँ ढलती है,
मिटटी के दिए ही तेल पी जाते है जहा,
उन घरो में शम्मा कहा जलती है ||
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